
बदायूं. सात साल पहले दिल्ली में पैरामेडिकल छात्रा निर्भया के साथ हुई हैवानियत ने पूरे देश को झकझोर दिया था। शुक्रवार तड़के निर्भया के चारों दोषियों को तिहाड़ जेल में उनकी मौत होने जाने तक फांसी के फंदे पर लटका दिया गया। इस दरिंदगी में उत्तर प्रदेश के बदायूं का रहने वाला एक नाबालिगभी शामिल था। इसलिए कोर्ट ने उसे बाल सुधार गृह भेज दिया था। जहां से वह दिसंबर 2015 में छूटा। लेकिन, गांव नहीं पहुंचा। कहां गया? उसके परिवार ने भी जानने की कोशिश नहीं की। गांव में भी उसका कोई नाम नहीं लेना चाहता है। उसकी मां कहती है- मेरे लिए मर तो उसी दिन गया था, जब उसने यह बुरा काम किया था।
...जब लाठी डंडा लेकर गांव के बाहर बैठ गए थे गांव वाले
बदायूं जिला मुख्यालय के करीब 54 किलोमीटर दूर नाबालिग का गांव है। गांव में घुसते ही मंदिर है। इसके पश्चिम दिशा की ओर गांव के आखिरी छोर पर झोपड़ीनुमा बना कच्चा घर बना है। जब साल 2015 में नाबालिगबाल सुधार गृह से रिहा हुआ तो पता चला कि वह गांव आने वाला है। लोग लाठी-डंडा लेकर गांव के बाहर बैठ गए थे। तब लोगों ने कहा था- उसके कारण बदायूं का नाम पूरे देश में बदनाम हुआ है। यहां के लोगों को समाज में शर्मिंदगी झेलनी पड़ी है। गांव में घुसने नहीं दिया जाएगा। लेकिन, नाबालिग दोषी गांव नहीं लौटा। परिस्थितियां आज भी वैसी ही हैं। गांव वाले उसका नाम तक लेना पसंद नहीं करते हैं।
मां ने कहा- अब मेरे घर में उसकी कोई जगह नहीं
नाबालिग दोषी 11 साल का था, जब उसे गांव वाले काम दिलाने के लिए दिल्ली ले गए थे। परिवार में माता-पिता हैं। पिता मानसिक रूप से कमजोर हैं। बड़ी बहन थी, उसकी गांववालों ने मिलकर उसकी शादी करा दी। मां कभी दूसरे के खेतों में काम करती है तो कभी दूसरे के जानवरों का देखभाल। इससे जो भी कमा पाती है, उससे परिवार का भरण पोषण कर रही है। मांकहती है- मैंने उसे इस उम्मीद से भेजा था कि, वह घर की माली हालत को सुधारेगा। लेकिन, बुरी संगत में पड़कर उसने ऐसा काम किया कि हम किसी को मुंह दिखाने के लिए लायक नहीं बचे। उसने जो किया है, उसके बाद मेरे घर में उसके लिए कोई जगह नहीं है।
बाहर वालों के आने से गांव के लोग नाराज, मगर मदद भी करते हैं
दोषी की मां ने कहा- 'जो भी बाहर से आता है, वह सिर्फ बेटे के बारे में पूछता है। बाहरवालों के आने से गांव वाले भी नाराज होते हैं। हमारी और गांव की बेइज्जती होती है। सब लोग हमें हिकारत भरी नजरों से देखते हैं। हालांकि, जरूरत पड़ने पर गांव वाले ही मदद के लिए आगे आते हैं। उन्हीं के खेतों पर काम करके परिवार को पाल रही हूं।'
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