Monday, June 29, 2020

अगर यह लगता है कि चीन बल प्रयोग का खेल खेल रहा है और उसकी अपेक्षाएं अवास्तविक हैं, तो उसे वहां जमे रहने दो और तुम भी वहीं जमे रहो

चीनी युद्ध का माहौल क्यों बना रहे हैं? लद्दाख में फौज इकट्‌ठी क्यों कर रहे हैं? वे भारत से क्या चाहते हैं? भारत इस सबका कैसे जवाब दे? इनके जवाब के लिए करीब 20 साल पीछे चलें और देखें कि भारत, पाकिस्तान से कैसे निपट रहा था। और याद करें कि भारत ने किस रणनीतिक दांव की खोज की थी, जिसे ‘बलप्रयोग की कूटनीति’ कहा गया था।

शायद जसवंत सिंह या दिवंगत ब्रजेश मिश्र में से किसी एक ने दिसंबर 2001 में भारतीय संसद पर हमले के बाद भारत की ओर से शुरू किए गए ‘ऑपरेशन पराक्रम’ के बारे में बताने के लिए इसका प्रयोग किया था। इसके तहत भारत ने सीमाओं पर सैनिकों, भारी फौजी साजो-सामान का ऐसा जमावड़ा किया था, मानो अब जंग होने ही वाली हो।

ऐसा ही कुछ आज लद्दाख में एलएसी के उस पार पूरब में होता लग रहा है। चीनी लद्दाख में जमीन के टुकड़े के लिए तो खतरा नहीं मोल ले रहे होंगे। न ही यह ‘सीपीईसी’ को कबूल करवाने या अक्साई चीन के औपचारिक विलय के लिए ही हो सकता है। यह तो कुछ बड़ी ही महत्वाकांक्षा होगी, जो पूरी होने से रही। तब चीन आखिर क्या हासिल करना चाहता है?

भारत बेशक पाकिस्तान नहीं है। कभी नहीं हो सकता। लेकिन हम यहां केवल जंग का खेल खेल रहे हैं। आप कह सकते हैं कि पाकिस्तान आतंकवाद को अपनी सरकारी नीति बनाने से बाज आए, यह गारंटी हासिल करने के लिए भारत ने ‘ग्रीनलैंड’, ‘यलो लैंड’ या किसी और ‘लैंड’ पर दावा किया होगा।

वह गारंटी भारत को संसद पर हमले के एक महीने के अंदर मिल गई थी, जब परवेज़ मुशर्रफ ने अपने भाषण में इसका वादा किया था। बल्कि उन्होंने तो पाकिस्तान में मौजूद दाऊद इब्राहीम समेत उन 24 आतंकवादियों की सूची को भी कबूल किया था और वादा किया था कि वे उनकी खोज करवा के भारत को सौंप देंगे ‘क्योंकि ऐसा नहीं है कि हमने उन्हें अपने यहां पनाह दे रखी है’।

लेकिन भारत और ठोस चीज़ की मांग कर रहा था, इसलिए जंग जैसा जमावड़ा कायम रहा। हालात तब बेकाबू होते दिखे जब आतंकवादियों ने जम्मू की कालुचक छावनी में भारतीय सैनिकों के परिवारों पर हमला किया। लेकिन संयम बना रहा, कुछ तो इसलिए कि पाकिस्तान पर विदेशी दबाव बना और ज्यादा इसलिए कि भारत ने कभी युद्ध छेड़ने का इरादा नहीं किया था।

उस दौरान मैंने जसवंत सिंह, ब्रजेश मिश्र और अटल बिहारी वाजपेयी से पूछा था कि क्या इस तरह की चाल से टकराव बेकाबू होने का खतरा नहीं है? मिश्र का जवाब था कि ‘बल प्रयोग की कूटनीति’ कारगर हो इसके लिए जरूरी है कि दबाव इतना असली दिखे कि कभी-कभी खुद हमें जंग का खतरा दिखने लगे। यह मजबूत देश की दबाव की चाल थी।

आज जब आप एलएसी के पार पूरब की ओर देखते हैं, तब क्या ऐसा ही कुछ आभास नहीं होता? भारत की उस चाल के बाद कई सालों तक अमन-चैन रहा। लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि दोनों पक्षों ने क्या सही किया और क्या नहीं किया। भारत ने वास्तविक फौजी जमावड़े की शुरुआत तो शानदार की मगर वह यह गुर भूल गया कि जीत का ऐलान कब करना है।

यह ऐलान उसी दिन कर सकते थे जब मुशर्रफ ने वह भाषण दिया था। पाकिस्तान ने इस खेल में बहुत जल्दी ही हार कबूल करके गलती की। अगर भारत ने तब अपनी जीत की घोषणा करके जमावड़ा हटा लिया होता तो उसे लगभग उतना ही फायदा होता जितना अंततः हुआ, लेकिन बेहिसाब खर्च, तनाव और अनिश्चितता से बच सकते थे।

इसके अलावा ‘बल प्रयोग की कूटनीति’ की स्पष्ट कामयाबी दिखती। लेकिन हमारी अपेक्षाएं बहुत ऊंची थीं। दूसरी ओर, पाकिस्तान भारत को थकाने के लिए मोर्चे पर डटा रहा। कुछ समय बाद जमावड़ा बेमानी हो गया। अब भारत जब इसी समीकरण का दूसरा पक्ष है, वह ये सबक लेकर आगे बढ़ सकता है-

1. कभी भी पीछे मत हटो, डटे रहो। विवेक का साथ मत छोड़ो, पर्दे के पीछे खुले दिमाग से बातचीत जारी रखो। कभी भी मुशर्रफ की तरह जल्दबाज़ी में पीछे मत हटो।
2. दूसरे पक्ष के इरादों को समझने में पूरा वक़्त लो। यह फैसला करो कि क्या उपयुक्त जवाबी कार्रवाई हो सकती है। लेकिन दबाव में कुछ भी कबूल मत करो।
3. लंबे संघर्ष के लिए तैयार रहो। अगर यह लगता है कि चीन बल प्रयोग का खेल खेल रहा है और उसकी अपेक्षाएं अवास्तविक हैं, तो उसे वहां जमे रहने दो और तुम भी एलएसी के पास जमे रहो। उसे थका डालो।
4. और अंत में, याद रखो कि कोई दो घटनाएं एक समान नहीं होतीं। इसलिए धमकी अगर धक्का-मुक्की में बदलती हो तो उसके लिए भी तैयार रहो। बृजेश मिश्र के ये शब्द याद रखों- ‘बल प्रयोग की कूटनीति’ कारगर हो इसके लिए जरूरी है कि दबाव इतना असली दिखे कि कभी-कभी खुद हमें जंग का खतरा दिखने लगे। इसलिए, इस कूटनीति का जवाब देने का तरीका यही हो सकता है कि दूसरे पक्ष की ओर से युद्ध की आशंका को इतना वास्तविक मानो कि उस पर यकीन करने लगो।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’।


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