Tuesday, February 11, 2020

धनी हो या दरिद्र कभी भी किसी मित्र का अपमान नहीं करना चाहिए, वरना बाद में पछताना पड़ता है

जीवन मंत्र डेस्क. महाभारत में द्रोणाचार्य और द्रुपद बचपन में दोनों मित्र थे। बालपन में द्रुपद ने द्रोण से कहा था कि जब मैं राजा बनूंगा, तब तुम मेरे साथ मेरे महल में रहना। मेरे राज्य पर तुम्हारा भी अधिकार होगा। द्रुपद युवा हुआ और पांचाल देश का राजा बन गया, जबकि द्रोण निर्धन थे। जानिए द्रोणाचार्य और द्रुपद से जुड़ी कथा...

द्वापर युग में पृषत नाम के एक राजा थे, वे द्रोणाचार्य के पिता भरद्वाज मुनि के मित्र थे। द्रुपद राजा का पुत्र था। वह भरद्वाज आश्रम में रहकर द्रोणाचार्य के साथ शिक्षा ग्रहण करता था। उस समय द्रोण और द्रुपद की अच्छी मित्रता हो गई। एक दिन द्रुपद ने द्रोणाचार्य से कहा कि जब मैं राजा बनूंगा, तब तुम मेरे साथ रहना। मेरा राज्य पर तुम्हारा भी अधिकार होगा।

राजा पृषत की मृत्यु हो गई। पिता के बाद द्रुपद पांचाल देश का राजा बन गया। दूसरी ओर द्रोणाचार्य अपने पिता के आश्रम में ही रहते थे। उनका विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ। उनका पुत्र था अश्वत्थामा। एक दिन बालक अश्वत्थामा दूध के लिए रोने लगा, लेकिन द्रोणाचार्य के पास गाय न होने की वजह से उसे दूध नहीं मिल सका।

द्रोणाचार्य गरीबी की वजह से बहुत दुखी थे। उन्हें मालूम हुआ कि द्रुपद राजा बन गया है तो वे उससे मदद मांगने पहुंचे। द्रोणाचार्य ने द्रुपद को बचपन की मित्रता याद दिलाई। ये बातें सुनकर द्रुपद ने कहा कि एक राजा और एक गरीब ब्राह्मण कभी मित्र नहीं हो सकते। ये कहकर द्रुपद ने द्रोणाचार्य का अपमान कर दिया।

द्रोणाचार्य अपमानित होकर द्रुपद से बदला लेने की बात सोचते हुए वे कृपाचार्य के घर हस्तिनापुर पहुंच गए।

हस्तिनापुर में एक दिन युधिष्ठिर और अन्य राजकुमार मैदान में गेंद से खेल रहे थे। तभी गेंद गहरे कुएं में गिर गई। राजकुमारों ने उस गेंद को निकालने की काफी कोशिश की, लेकिन वह नहीं निकली। राजकुमारों को गेंद निकालने का असफल प्रयास करते द्रोणाचार्य देख रहे थे। उन्होंने राजकुमारों से कहा कि मैं तुम्हारी ये गेंद निकाल देता हूं, तुम मेरे लिए भोजन का प्रबंध कर दो।

द्रोणाचार्य ने बहुत अच्छे धनुर्विद्या में पारंगत थे। उन्होंने अपनी विद्या का उपयोग करते हुए छोटे-छोटे तिनकों की मदद से कुएं में से वह गेंद निकाल दी। जब ये बात पितामाह भीष्म को मालूम हुई तो वे द्रोणाचार्य को राजमहल लेकर आए और कौरवों-पांडवों का गुरु नियुक्त कर दिया। द्रोणाचार्य ने सभी राजकुमारों के अच्छी तरह धनुर्विद्या सीखा दी। जब कौरव और पांडवों की शिक्षा पूरी हुई तो द्रोणाचार्य ने राजकुमारों से गुरुदक्षिणा के रूप में पांचाल देश के राजा द्रुपद को बंदी के रूप में लाने के लिए कहा। पांडवों ने राजा द्रुपद को बंदी बना लिया और गुरु द्रोणाचार्य के पास लेकर आए। तब द्रोणाचार्य ने उसे आधा राज्य लौटा दिया और आधा अपने पास रख लिया।

प्रसंग की सीख

इस प्रसंग की सीख यह है कि मित्र धनी हो या दरिद्र, कभी भी उसका अपमान नहीं करना चाहिए, वरना बाद में पछताना पड़ता है। मित्र हर स्थिति में सम्मानीय होता है। कभी भी मित्रों का अनादर न करें।



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